गिरजा कुमार माथुर की देश भक्ति कविता के कुछ पंक्तिया . यहाँ कवी स्वतंत्रता के एक दिन पहले की रात के बारे में बताया है . जय हिन्द
आज जीत की रात
पहरुए! सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना
२
प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जन-मंथन से उठ आई
पहली रत्न-हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन-मुक्ता-डोर
क्यों कि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर
ले युग की पतवार
बने अंबुधि समान रहना।
३
विषम शृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्त दिशाएँ
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग-बंदिनी हवाएँ
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गयीं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ
उठता है तूफान, इंदु! तुम
दीप्तिमान रहना।
४
ऊंची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी
छायाओं का डर है
शोषण से है मृत समाज
कमज़ोर हमारा घर है
किन्तु आ रहा नई ज़िन्दगी
यह विश्वास अमर है
जन-गंगा में ज्वार,
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए! सावधान रहना।।
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मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्वज को थमा दो।
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
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वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है ।
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है ।
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणों में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"
यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया ।
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया ।
आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"
हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे ।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?
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