बाल श्रम : एक सामाजिक समस्या
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मानव जगत में उत्साह, उमंगों एवं सपनों का सर्वोकृष्ट जीवित पुंज 'बालक' को माना गया है | बच्चे किसी भी राष्ट्र के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं | वे देश के भावी कर्णधार एवं प्रगति का आइना हैं | उनका चमकता या मुरझाया हुआ चेहरा इस बात का प्रतीक है की वह देश कितना खुशहाल , संपन्न या विपन्न है | ये राष्ट्र की धरोहर होते हैं जिनकी समुचित देखभाल एवं विकास पर ही किसी भी राष्ट्र की प्रगति निर्भर करती है | वे सभ्यता एवं भविष्य के आधार हैं और निरंतर पुनजीर्वन का स्त्रोत भी, इन्ही के कन्धों पर मानवता के उज्जवल भविष्य की आधार-शिला रखी जा सकती है,किन्तु विडम्बना इस बात की हे कि इन बच्चों कि एक बड़ी संख्या ऐसे बच्चों कि है, जिनका जीवन संघर्षों एवं असामान्य परिस्थिति में बीतता है |
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बाल श्रम को कानूनी मान्यता
भोपाल के रेल्वे प्लेटफॉर्म पर पॉपकार्न बेचने वाला विनोद अब यह भी नहीं जानता कि उसका घर कहां है ? विनोद अभी सात साल का है और पिछले तीन सालों से तो वह इसी प्लेटफॉर्म या उसके आसपास ही रहता आया है. उसके साथ रहती है उसकी गरीबी, भूख, असहायता और इन सबसे हर रोज की जद्दोजहद करती उसकी ज़िंदगी.
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मानव जगत में उत्साह, उमंगों एवं सपनों का सर्वोकृष्ट जीवित पुंज 'बालक' को माना गया है | बच्चे किसी भी राष्ट्र के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं | वे देश के भावी कर्णधार एवं प्रगति का आइना हैं | उनका चमकता या मुरझाया हुआ चेहरा इस बात का प्रतीक है की वह देश कितना खुशहाल , संपन्न या विपन्न है | ये राष्ट्र की धरोहर होते हैं जिनकी समुचित देखभाल एवं विकास पर ही किसी भी राष्ट्र की प्रगति निर्भर करती है | वे सभ्यता एवं भविष्य के आधार हैं और निरंतर पुनजीर्वन का स्त्रोत भी, इन्ही के कन्धों पर मानवता के उज्जवल भविष्य की आधार-शिला रखी जा सकती है,किन्तु विडम्बना इस बात की हे कि इन बच्चों कि एक बड़ी संख्या ऐसे बच्चों कि है, जिनका जीवन संघर्षों एवं असामान्य परिस्थिति में बीतता है |
प्रश्न ये है कि जिन बच्चों का बचपन ही समस्याओं से घिरा हुआ है, उन बच्चों का भविष्य क्या होगा? क्या ये बच्चे बड़े होकर पढेंगे या बाल श्रमिक बनेंगे और वे समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान किस प्रकार से दे सकेंगे ?आज भी परिवार की आर्थिक विवशताओं के कारण हजारों बच्चे स्कूल की चौखट भी पार नहीं कर पाते और अनेकानेक बालकों को इन्हीं बाध्यताओं के कारण पढाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है और बाल श्रमिक आजीविका, शिक्षा, प्रशिक्षण और कार्यरत कौशल से वंचित रह जाते हैं | परिणामतः न उनका मानसिक विकास हो पता है और न ही बौद्धिक विकास संभव है |
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किसी भी देश के बालकों की अच्छी अथवा बुरी दशा ही वहाँ के सांस्कृतिक स्तर का सबसे विश्वसनीय मापदंड होता है | आदि काल से बच्चों का पालन पोषण विशेष और महत्त्वपूर्ण समाजिक उत्तरदायित्व रहा है | इस सन्दर्भ में उसकी आवश्यकताओं की संतुष्टि में परिवार की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है | मनुष्य के जीवन में बाल्यावस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें उसको सबसे अधिक सहायता, देखभाल, प्रेम, सहानुभूति और सुरक्षा की आवश्यकता होती है | जिन व्यक्तिओं का बाल जीवन सुखी, संतुष्ट और सुरक्षित गुजरता है उनका व्यक्तित्व और भविष्य भी सामान्यतः संतुलित होता है और वे एक विकासशील, सशक्त और उन्नत समाज की संरचना में रचनात्मक सहयोग देते हैं |
प्राचीनकाल से ही बाल श्रमिक कृषि, उद्योग, व्यापार तथा घरेलु धंधों में कार्यरत रहे हैं परन्तु उस समय जनसंख्या के कम दबाव, गरीबी, अज्यनता, रूढ़िवादिता तथा भाग्यवादिता के कारण उनकी शिक्षा अवं उनके सर्वंगीण विकास की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया, बचपन ही मजदूरी की बेदी पर होम कर दिया जाता है ओर फिर उनके हाथों में कलम ओर किताब के स्थान पर हंसिया, फावड़ा, ओर श्रम के निशान ही सदैव दिखाई पड़ते हैं | बल श्रम को बढ़ावा देने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका उन उद्योगपतिओं, कारखानेदारों ओर संपन्न किसानों की है जो बच्चों को कम धंधों पर लगाना चाहते हैं, क्योंकि एक तो ये छोटे बच्चे आधी या और कम मजदूरी में ही काम कर लेते हैं, दूसरे गंदे और असुविधाजनक वातावरण में चुपचाप घंटों काम करते हैं |
बाल श्रम के पक्ष और विपक्ष दोनों में विचार व्यक्त किये गए हैं, पक्ष के विचारकों के अनुसार बाल श्रम आर्थिक प्रगति में योगदान देता है | विपक्षियों के अनुसार यह एक सामाजिक बुराई है क्योंकि इसमें बच्चों के विकास में बाधा पड़ती है और वे वयस्क होने पर एक नागरिक के रूप में सामाजिक विकास में अपना समुचित योगदान नहीं दे पाते हैं | विपक्षीय मत को इतनी व्यापक सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है की बाल श्रम शब्द अब एक सामाजिक बुराई का ही बोध करता है |
बाल श्रम की समाया हर युग में किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है | भारत के कृषि समाज में बच्चे कृषि व पारंपरिक व्यवसाय करते हैं व मदद करते हुए काम सीखते थे | औद्योगीकरण के बढ़ने के साथ ही बाल श्रम का स्वरूप भी बदला | पारिवारिक व्यवसाय के बंधन टूटते गए और बच्चों को भी एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में अपने नियोक्ता के पास मजदूरी ले लिए जाना पड़ा | उसे अपनी समस्याओं से खुद ही जूझना पड़ा तथा काम के स्थान पर अभिभावकों के संरक्षण से वंचित भी रहना पड़ा |
यूनिसेफ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है की बच्चों की खरीद, शोषण तथा दुकानों, खदानों, फैक्ट्रियों, उद्योगों, ईंट भट्टों और घरेलु कामों में जबरिया मजदूरी तथा शारीरिक दुर्व्यवहार की असंख्य डरावनी कहानियाँ हैं | लेकिन सभी बाल श्रमिकों का शोषण नहीं होता है और उनके द्वारा किया जाने वाला हर काम उनके विकास के लिए घातक नहीं होता है | रिपोर्ट में बांग्लादेश का उदहारण दिया गया है जहाँ वस्त्र उद्योग में ५५००० से अधिक बाल श्रमिक हैं और उनके योगदान से यह देश अमेरिका को करीब ७५ करोड़ डॉलर मूल्य के वस्त्रों का निर्यात करता है | बाल श्रमिकों द्वारा बनाये गए माल पर प्रतिबन्ध के कारण बांग्लादेश के नियोक्ताओं ने करीब ७५ प्रतिशत बालकों को नौकरी से हटा दिया | इससे ऐसे बाल श्रमिकों और उनके परिवारों के सामने गंभीर आर्थिक संकट और गहरा हो गया |
कामगार परिवारों की "जितने हाथ उतने काम" वाली मानसिकता ने भी बाल श्रम को बढ़ावा दिया है | यह मानसिकता बेहद घातक है और विकास की गति को पीछे ले जाती है | श्रमिक परिवार की इस मानसिकता ने भी बाल श्रम को बढ़ावा दिया है | बाल श्रमिक समाज के एक उपेक्षित अंग है, क्योंकि इन्हें स्कूलों में में पढ़ने के स्थान पर रोजी के लिए विवश होना पड़ता है | २००१ की जनगणना के अनुसार भारत में बाल श्रमिकों की संख्या १२६६६३७७ है |
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बाल श्रम भारत की अन्य समस्याओं में एक कठिन समस्या है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है की भारत का भविष्य जो किसी कस्बे व नगर, महानगर की किन्ही बस्तियों में जन्म लेकर जीवन के ६ से ८ वर्ष की दहलीज को पार करते ही अपने पेट की चिंता में व सुबह शाम के पेट भरने की समस्या से बाध्य होकर उन बच्चों को चाय की दुकानों, हथकरघों और फुटपाथों पर काम करते देखा जा सकता है |
बच्चों को रोजगार ढूँढने के जो भी कारण हो प्रायः बालक ऐसी स्थितियों में काम करते हैं जो उनके स्वास्थ, कल्याण तथा विकास के लिए हानिकारक है जिससे अधिकतर बाल श्रमिक कभी स्कूल नहीं गए होते हैं या उन्हें पढाई बीच में ही छोड़कर रोजगार में लग जाना पड़ता है | कामकाजी बालक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल प्राप्त करने से वंचित रह जाते है | जबकि यह आजीविका, पोषण तथा आर्थिक विकास के लिए पूर्व अपेक्षित है, चूँकि बालश्रम एक व्यापक समस्या है, इसलिए ये आम जनता, मजदूर संघों, समाज सेवा संगठनो, सरकार के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है |
बच्चों को रोजगार ढूँढने के जो भी कारण हो प्रायः बालक ऐसी स्थितियों में काम करते हैं जो उनके स्वास्थ, कल्याण तथा विकास के लिए हानिकारक है जिससे अधिकतर बाल श्रमिक कभी स्कूल नहीं गए होते हैं या उन्हें पढाई बीच में ही छोड़कर रोजगार में लग जाना पड़ता है | कामकाजी बालक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल प्राप्त करने से वंचित रह जाते है | जबकि यह आजीविका, पोषण तथा आर्थिक विकास के लिए पूर्व अपेक्षित है, चूँकि बालश्रम एक व्यापक समस्या है, इसलिए ये आम जनता, मजदूर संघों, समाज सेवा संगठनो, सरकार के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है |
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बाल श्रम को कानूनी मान्यता
भोपाल के रेल्वे प्लेटफॉर्म पर पॉपकार्न बेचने वाला विनोद अब यह भी नहीं जानता कि उसका घर कहां है ? विनोद अभी सात साल का है और पिछले तीन सालों से तो वह इसी प्लेटफॉर्म या उसके आसपास ही रहता आया है. उसके साथ रहती है उसकी गरीबी, भूख, असहायता और इन सबसे हर रोज की जद्दोजहद करती उसकी ज़िंदगी.
सरकारी आंखों को नहीं नजर आते बाल श्रमिक |
मध्यप्रदेश सरकार के अनुसार राज्य में कुल 94 बाल श्रमिक हैं. यानी हर ज़िले में लगभग 2 बाल श्रमिक. लेकिन सच तो ये है कि राज्य के हर छोटे-बड़े शहर में सैकड़ों बाल श्रमिक सरकार की आंखों के सामने हाड़तोड़ मेहनत में जुटे हुए हैं. |
वह कभी प्लेटफॉर्म पर पॉपकार्न बेचता है, तो कभी रेल्वे कंपार्टमेंट में झाड़ू लगाता है. सोने का ठिकाना प्लेटफॉर्म, रिश्तेदारों के नाम संग फिरते चंद मासूम और शत्रुओं के नाम पर पुलिस और यह व्यवस्था. प्लेटफॉर्म पर रहने वाला अकेला विनोद नहीं हैं अपितु विनोद की तरह राज्य में हज़ारों बच्चे प्लेटफॉर्म को अपना आशियाना बनाये हुये हैं. अध्ययन कहता है कि भोपाल में रोजाना तीन नये बच्चे प्लेटफॉर्म पर आते हैं.
कबाड़खाने में काम करने वाला जुनैद उम्र- 8 साल पिछले दो वर्षों से मेकेनिकी सीख रहा है. सुबह 8 बजे से गैरॉज खोलता है और रात 10 बजे अपने घर लौटता है. वह 14 घंटे काम करता है और उसे मिलते हैं माह के 400 रूपये. वह अभी सीख रहा है, जब सीख जायेगा तो सीधा दूना यानि 800 रूपया मिलने लगेगा यानि 26 रूपया प्रतिदिन. जिस दिन काम नहीं, उस दिन पैसा भी नहीं. जुनैद ने न तो कभी स्कूल का मुँह देखा है और न ही जीवन के इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद इसकी कोई उम्मीद है.
हमारे देश ने अंर्तराष्ट्रीय प्रतिबध्दताओं में यह माना है कि बच्चा यानि वह जिसने 18 वर्ष की उम्र पूरी ना की हो (बाल अधिकारों के लिये अंर्तराष्ट्रीय प्रतिबध्दता अनुच्छेद 1). वहीं संविधान 14 वर्ष की उम्र तक को ही बच्चा मानता है और उसी आधार पर अपने आंकड़े प्रस्तुत करता है. यही कारण है कि 14-18 वर्ष तक के बच्चों की कार्यशील जनसंख्या का कोई भी निश्चित ब्यौरा हमारे समक्ष नहीं है. इस जनसंख्या का एकमात्र स्त्रोत जनगणना है जिसके आंकड़े जब तक हमारे सामने आते हैं, वह संख्या कहीं और पहुंच चुकी होती है.
बच्चों के मामले में विसंगतियों की चाहरदीवारी इतनी ऊंची है कि कोई इसे चाह कर भी नहीं लांघ सकता. 0-6 वर्ष तक के बच्चों के लिये महिला एवं बाल विकास विभाग उत्तरदायी है. उसके बाद यानी 6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा विभाग की जिम्मेवारी तय की गई है. लेकिन 14-18 वर्ष तक की उम्र का कोई माई-बाप नहीं है.
परिभाषाओं की विसंगतियों का हाल ये है कि 10 अक्टूबर 2006 से पहले खतरनाक और गैर खतरनाक उद्योगों के मकड़जाल में ही हमारे क़ानून उलझे हुए थे. ज़रा सोचिये कि किसी बच्चे के काम करने को खतरनाक और गैर खतरनाक में कैसे बांटा जा सकता है, क्योंकि एक बच्चे के लिये तो काम करना ही सबसे खतरनाक है.
बहरहाल, बालश्रम अधिनियम 1986 में संशोधन के बाद केवल इतना भर हुआ कि घरों, ढांबों और होटलों में भी बच्चों का काम पर रखा जाना दंडनीय अपराध हो गया. इसके अनुपालन के लिए बाल श्रमिकों के मालिकों ने अपने संस्थान के बाहर “हमारे यहां कोई भी बाल श्रमिक नहीं है” का बोर्ड लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली और श्रम विभाग ने इन बोर्डों के प्रति पूरी आस्था जताते हुए इन बोर्डों के पीछे के भयानक सच से अपनी आंखें मूंद लीं.TOP 100 HINDI JOKES 2016 (NEW)
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बदलते दौर की विडंबना यह भी है कि सर्वाधिक बालश्रमिक 12-15 वर्ष के ही हैं ओर 18 वर्ष तक के बच्चों की संख्या करोडों में है, जिनकी गणना करना टेढ़ी खीर है. ज़ाहिर है, सरकारों की भी दिलचस्पी इनमें नहीं है.
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश में 5-14 वर्ष तक के बाल श्रमिकों की संख्या 10,65, 259 थी, जबकि भारत में यह संख्या 1 करोड़ 26 लाख 66 हजार 377 थी.
सर्वशिक्षा अभियान के अनुसार जुलाई माह में प्रदेश में कुल 71000 बच्चे ही स्कूल की परिधि से बाहर हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है. वर्ष 2005-06 में यह आंकड़ा 472242 था, जो वर्ष 2006-07 में 296979 बचा और चालू वर्ष में 71000 हो गया.
वास्तविकता यह नहीं हैं जो दिखाई जा रही है, वास्तविकता वह है जो दिखाई नहीं जाती. एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा भोपाल की झुग्गी बस्तियों में स्कूल से बाहर बच्चों की संख्या जानने हेतु किये गये सर्वेक्षण से यह बात उभरती हैं कि अकेले भोपाल के झुग्गी क्षेत्रों में 23000 बच्चे शिक्षा की परिधि से बाहर हैं.
जब राजधानी में बच्चों की यह स्थिति है तो फिर मंड़ला, डिण्डौरी तथा झाबुआ जिलों का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में किये गये 300 बाल श्रमिकों का अध्ययन यह बताता है कि 176 बाल श्रमिक पूर्ण रूप से निरक्षर हैं, 114 कभी अध्ययनरत रहे हैं तथा महज 7 बच्चे ही माध्यमिक स्तर में अध्ययनरत रहे हैं. यह स्थिति रायसेन जिले की है, जहां सर्वाधिक साक्षरता दर्ज की गई थी.
100 नियोक्ताओं से कानून की जानकारी देते हुये शिक्षा के संदर्भ में सवाल किया गया तो नियोक्ताओं का यह मानना था कि शिक्षा से कुछ नहीं होगा बल्कि काम करेंगे तो ये आगे बढेंगे.
वहीं दूसरी ओर नगरीय क्षेत्र, भोपाल के 148 संगठनों के 9 से 12 वर्ष तक के 200 बाल मजदूरों पर किये गये अध्ययन से यह तथ्य उभरकर सामने आया कि 97 फीसदी बाल श्रमिक बीमार थे और 160 बच्चे नशाखोरी जैसी बुरी आदतों में लिप्त पाये गये. ये श्रमिक रोजाना 12 से 15 घंटे काम करते हैं और 150 रूपया मासिक मेहनताना पाते हैं.
महज़ 2 फीसदी बच्चे ही ऐसे पाए गए जिन्हें 350 रूपया मासिक मिलता है. इन बच्चों को सालाना 10 से 12 दिन का अवकाश भी मिलता है.
आज की स्थिति में जहां सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों से अपने हाथ लगातार खींच रही है, सरकार देश की एक चौथाई आबादी को साफ पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं करा पाई हैं, ऐसे में यह कहां तक संभव है कि सरकार बाल श्रम का उन्मूलन कर देगी ? और जब यह सरकार नहीं कर पायेगी तब यही होगा कि सरकार को विनोद और रईस जैसे लाखों- करोड़ों बाल श्रमिक नहीं दिखेंगे और जब ये नहीं दिखेंगे और परिभाषाओं के संजाल में नहीं आयेंगे तो किस बात का पुनर्वास ?
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सरकार की इस गैर जिम्मेदारी का एक उदाहरण सामने भी आता है, जिसमें मध्यप्रदेश सरकार कहती है कि मध्यप्रदेश में कुल जमा 94 बाल श्रमिक हैं. दूसरी ओर 1997 से राज्य में बाल श्रमिकों का कोई भी सर्वेक्षण नहीं हुआ है. यदि इन आंकडों को सही माना जाये तो फिर उन परियोजनाओं को सरकार क्यों चला रही है जो कि विशेष तौर पर बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिये हैं ?
सरकार प्रदेश के 48 में से 17 जिलों में राष्ट्रीय बालश्रम उन्मूलन परियोजना संचालित कर रही है, जिसमें 59012 बाल श्रमिकों का पुर्नवास किया जाना है. प्रदेश के ही पांच जिलों में सरकार इंडस बालश्रम परियोजना संचालित कर रही है, जिसका लक्ष्य समूह 14107 बाल श्रमिक हैं. इस विरोधाभास को समझने की जरुरत हैं.
हमें लगता है कि आजादी के साठ वर्षों बाद सरकार को अब यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि वह बालश्रम का विनिमयन करने में अक्षम है. अर्थात् यह वह समय है जबकि बालश्रम को कानूनी मान्यता दे दी जानी चाहिये और साथ ही तय कर दिये जाने चाहिये मापदंड यानि यह व्यवस्था पूर्ण रूप से औपचारिक हो तथा कार्यनीतियाँ कुछ इस तरह से बनाई जायें जो कि बालश्रमिकों के पक्ष में हों. यथा साप्ताहिक कार्यदिवस, कार्यसमय, मेहनताना, आराम के घंटे साथ ही साथ पूरक स्थितियों की सुनिश्चिंतता.
हम ये बात बखूबी जानते हैं कि जो बच्चे आज बाल मजदूर के रूप में खट रहे हैं, वे कभी भी राष्ट्र निर्माण में अपनी उत्पादक भूमिका नहीं निभा पायेंगे लेकिन यह भी निर्विवाद सत्य है कि आज सरकारें महज़ थेगडे लगाने का काम ही कर सकती हैं, इस कुव्यवस्था को समूल नष्ट करने का नहीं, और जब यह कुव्यवस्था रहेगी ही तो फिर क्यों न वे स्थितियां बनाई जायें जिनमें सरकारें कम से कम यह स्वीकारें तो कि हमारे यहां बाल श्रमिक हैं और उनके लिये बेहतर स्थितियां बनाये जाने की ईमानदार कोशिश की जाए
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ReplyDeleteIt is helping me a lot
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ReplyDeleteWelcome :)
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